
नई दिल्ली. छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक धर्म परिवर्तन कर क्रिश्चियन बने शख्स को दफनाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की खंडपीठ ने अपना फैसला सुनाया. दोनों जज ने इस मामले में अलग-अलग राय रखी. मृत शख्स के बेटे ने गांव में ही पिता के शव को दफनाने की मांग करते हुए याचिका दायर की थी. जस्टिस बीवी नागरत्ना ने शव को मृतक की निजी जमीन पर दफनाने के आदेश दिए, मगर जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा इससे सहमत नहीं हुए. कोर्ट ने इस केस को बड़ी खंडपीठ में भेजने से इनकार कर दिया, क्योंकि शव पिछले तीन हफ्ते से मोर्चुरी में पड़ा है.. खंडपीठ ने प्रशासन को शव को गांव से 20 किलोमीटर दूर क्रिश्चियन के लिए बने कब्रिस्तान में शव को दफनाने की व्यवस्था करने का आदेश दिया है.
7 जनवरी को हुई थी मौत
करीब तीन हफ्ते पहले 7 जनवरी को सुभाष बघेल की मौत हो गई थी. उनके बेटे रमेश ने अपने पिता के शव को छिंदवाड़ा गांव के पैतृक जमीन में दफनाने का प्रयास किया, जिसका स्थानीय लोगों ने विरोध किया. फिर यह मामला कोर्ट में पहुंचा. छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने भी शव को ईसाइयों के लिए बने कब्रिस्तान में दफनाने का निर्णय दिया. हाईकोर्ट ने पहले कहा था कि गांव के कब्रिस्तान में दफनाने पर बघेल की मांग से कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती है. रमेश बघेल ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी थी. जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने सुनवाई के दौरान यह टिप्पणी की थी कि कोर्ट इस बात से दुख हो रहा है कि एक व्यक्ति को अपने पिता के अंतिम संस्कार के लिए सुप्रीम कोर्ट आना पड़ा.
गांव के कब्रिस्तान में दफनाया गया है शव
रमेश बघेल के वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने तर्क दिया था कि परिवार के सदस्यों को धर्म परिवर्तन के बाद भी गांव के कब्रिस्तान में दफनाया गया. रमेश ने कहा कि मैं गांव से बाहर नहीं जाना चाहता. मैं नहीं चाहता कि मेरे साथ सिर्फ इसलिए अछूत जैसा व्यवहार किया जाए क्योंकि मैंने धर्म परिवर्तन किया है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इसका विरोध किया और कहा कि यह आदिवासी हिंदुओं और आदिवासी ईसाइयों के बीच अशांति पैदा कर सकता है. उन्होंने बताया कि गांव से सिर्फ 20 किलोमीटर दूर एक ईसाई कब्रिस्तान है, जहां शव को दफनाया जा सकता है. गांव की जमीन पर एक हिंदू आदिवासी कब्रिस्तान है.
ग्रामीणों के बीच विभाजन पैदा कर दिया
जस्टिस नागरत्ना ने बताया कि इस केस में दो फैसले हुए हैं . अपने फैसले में उन्होंने कहा कि माना जाता है कि मौत के बाद सब एक हो जाते हैं और हमें खुद को यह याद दिलाने की जरूरत है. इस मौत ने दफनाने के अधिकार को लेकर ग्रामीणों के बीच विभाजन पैदा कर दिया है. अपीलकर्ता का कहना है कि भेदभाव और पूर्वाग्रह है. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने हाई कोर्ट के सुझाव को स्वीकार कर लिया कि यह गांव की प्रथाओं से अलग है.