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तालिबान सरकार को मान्यता देनी चाहिए

यदि नई दिल्ली अन्य देशों द्वारा तालिबान सरकार को मान्यता दिए जाने के बाद मुहर लगाती है, तो इससे उसके कदम का कूटनीतिक महत्व कम हो जाएगा।

हैप्पीमन जैकब. अगस्त 2021 में तालिबान द्वारा काबुल में सत्ता संभालने के बाद पहली बार भारत ने उसके विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी की मेजबानी की है। अफगानिस्तान की अधिकृत सरकार के तौर पर तालिबान को मान्यता दिए बगैर उससे बातचीत की नई दिल्ली की नीति थोड़ी धीमी, मगर स्थिरता लिए रही है। वास्तव में, रूस के अलावा अब तक किसी बड़े गैर-इस्लामी देश ने तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है और रूस ने भी हाल ही में यह कदम उठाया है।

यूं तो चार साल पहले काबुल की सत्ता में आने के पहले से भारत तालिबान से संवाद करता रहा है, मगर मुत्ताकी की भारत यात्रा के दौरान उन्हें आधिकारिक तौर पर ‘अफगानिस्तान का विदेश मंत्री’ बताकर नई दिल्ली ने संकेत दे दिया है कि वह तालिबान हुकूमत को मान्यता देने के करीब है। अगर नई दिल्ली मुत्ताकी को विदेश मंत्री कहने और उसके अनुरूप प्रोटोकॉल देने को राजी है, तो फिर उनकी हुकूमत को आधिकारिक सरकार की मान्यता क्यों नहीं दी जानी चाहिए? समय आ गया है कि भारत अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता दे। इसके नुकसान बहुत कम और रणनीतिक लाभ अधिक हैं। मेरा मानना है कि चार वजहों से नई दिल्ली को अविलंब यह मान्यता देने पर विचार करना चाहिए। लेकिन उससे पहले, इस कदम से जुड़ी कुछ आपत्तियों पर संक्षेप में चर्चा जरूरी है।

तालिबान को राजनयिक मान्यता देने के विरुद्ध सबसे तीखी आपत्ति एक नैतिक तर्क से उपजी है। तर्क यह है कि भारत को एक ऐसे शासन को मान्यता नहीं देनी चाहिए, जो अनिष्टकारी मूल्यों का समर्थन करता हो और अपनी आधी आबादी के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करता हो। यह तर्क अपनी जगह सही है। मगर इसे स्वीकार करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि न तो कोई सरकार नैतिक रूप से स्वीकार्य होती है (सिर्फ इसलिए कि वह परिष्कृत रूप में अत्याचार करती है), और न ही अस्वीकार्य, क्योंकि नैतिक मूल्यों वाली किसी व्यवस्था को मान्यता देना उसके मूल्यों या उसकी खामियों का समर्थन करना नहीं है। विश्व राजनीति इससे कहीं ज्यादा जटिल है। हमारा निजी चुनाव तय नहीं कर सकता कि कोई देश कैसे नीतिगत फैसले ले।

दूसरी आपत्ति यह है कि तालिबान को वैध शासक के रूप में मान्यता देने का अर्थ जाने-अनजाने इस क्षेत्र में शुद्धतावाद के उदय और घृणित मूल्यों को मजबूत करना होगा। मुझे लगता है, सच इसके ठीक विपरीत है। तालिबान को मान्यता देकर उन्हें मुख्यधारा में लाना, उन्हें बेहतर व्यवहार के लिए तैयार करने का एक तरीका हो सकता है। गौर कीजिए। साल 2025 के तालिबान वही तालिबान नहीं हैं, जो वे 1996 में थे। वे अब थोड़े दुनियादार, कुछ-कुछ उदार और अपने आस-पास की दुनिया से तालमेल बिठाने के आधुनिक तरीकों के प्रति अधिक खुले बन गए हैं। लैंगिक आधार पर भेदभाव के लिए तीखी आलोचना के बाद तालिबान ने भारतीय महिला पत्रकारों को बाद की प्रेस कॉन्फ्रेंस में बुलाकर अपनी गलती सुधारी। कभी-कभी बदलाव सीधे बहिष्कार के बजाय संपर्क, सामाजीकरण और दबाव से भी आता है। भले ही आप असहमत हों, मगर अपने पड़ोस के किसी शासन को सिर्फ इसलिए त्याग देना कि आप उसकी आस्था और परंपराओं से सहमत नहीं हैं, एक गलत शासन-कला है।

तीसरी आपत्ति यह की जाती है कि तालिबान के साथ गलबहियां करने से भारत-पाकिस्तान संबंध और ज्यादा खराब हो सकते हैं और यह भारत को अफगानिस्तान के अंदरूनी संघर्षों में उलझा सकता है। वास्तविकता यह है कि भारत-पाकिस्तान संबंध पहले ही अपने निम्नतम स्तर पर हैं और काबुल के साथ बातचीत से इसमें कोई महत्वपूर्ण बदलाव आने की संभावना नहीं है।

अब मैं उन चार वजहों को यहां रखना चाहता हूं कि भारत को तालिबान सरकार को मान्यता क्यों देनी चाहिए! सबसे पहली तो यही कि तालिबान ने आम तौर पर भारत के प्रति सकारात्मक रुख बनाए रखा, सिवाय आईसी814 अपहरण के, जो तालिबान से कहीं ज्यादा पाकिस्तानी आईएसआई की कारस्तानी थी। अगस्त 2021 में काबुल में सत्ता संभालने के बाद से तालिबान ने भारत के साथ अपने संबंध सुधारने के प्रयास किए हैं, जिसमें उसका यह रुख भी शामिल है कि कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है।

दूसरा कारण, भले ही अब तक बड़े देशों में केवल रूस ने तालिबान सरकार को मान्यता दी है, लेकिन तालिबान पर पश्चिमी दबाव के कम होने और स्थानीय प्रतिरोध में कमी को देखते हुए अब यह केवल समय की बात रह गई है कि अन्य देश कब रूस की राह पकड़ें। यदि नई दिल्ली अन्य देशों द्वारा तालिबान सरकार को मान्यता दिए जाने के बाद उस पर मुहर लगाती है, तो इससे उसके इस कदम का कूटनीतिक महत्व कम हो जाएगा। मगर इसके उलट, शीघ्र मान्यता भारत को रणनीतिक रूप से अग्रणी पंक्ति में ला देगी। इससे अफगानिस्तान के भविष्य को आकार देने में वह अहम खिलाड़ी बन सकता है।

तीसरी वजह, तालिबानी नेतृत्व वाले काबुल से घनिष्ठ रणनीतिक साझेदारी, इस क्षेत्र में भारत का महत्व कम करने की चीनी-पाकिस्तानी योजनाओं से निपटने में उपयोगी रणनीति साबित हो सकती है और यह काबुल के साथ बीजिंग की बढ़ती नजदीकियों को भी संतुलित करने में काम आएगी।

मुत्ताकी की यात्रा के दौरान विदेश मंत्री एस जयशंकर द्वारा ‘अफगानिस्तान की संप्रभुता, अखंडता और स्वतंत्रता के प्रति भारत की पूर्ण प्रतिबद्धता’ का इजहार मुख्यत: पाकिस्तान-लक्षित प्रतीत होता है। मगर इससे पता चलता है कि नई दिल्ली इस इलाके में पाकिस्तान के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए काबुल में बैठी सरकार के साथ सक्रिय रूप से जुड़ने के रणनीतिक मूल्य को पहचानती है। इस पर अब गोल-मोल बातें करने का कोई मतलब न­हीं है।

और आखिरी वजह, तालिबान हुक्मरां अंतरराष्ट्रीय मान्यता और वैधता के लिए व्यग्र हैं। ऐसे में, भारत से राजनयिक मान्यता उनके लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होगी। भारत के लिए यह मान्यता काबुल में राजनीतिक सद्भावना की नींव मजबूत करने और उसके साथ रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है। तेजी से बदलते क्षेत्रीय परिदृश्य में नई दिल्ली अपने इस एक कदम से मूल्यवान सद्भावना, रणनीतिक साझेदारी और मध्य एशिया के द्वार पर अपनी मैत्रीपूर्ण उपस्थिति वाला रुतबा हासिल कर सकता है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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