महाराष्ट्र सरकार को जहां आर्थिक मोर्चे पर ठहराव की स्थिति से जूझना होगा, तो वहीं झारखंड की हुकूमत को अपने लोगों की तरक्की को सही दिशा देनी पड़ेगी.
किया है काम भारी, अब आगे की तैयारी- महाराष्ट्र में भाजपा, शिव सेना (शिंदे) और एनसीपी (अजित पवार) वाले गठबंधन, यानी महायुति ने अपने चुनाव-घोषणापत्र को यह नाम दिया था. मगर महाराष्ट्र हो या झारखंड, चुनाव के बाद नई सरकारों के सामने नए काम की नई चुनौतियां खड़ी हैं, जिनको पूरा करना भी बड़ा भारी काम साबित होने वाला है.
ऊपर से देखने पर यह तुलना एकदम बेतुकी लग सकती है, क्योंकि महाराष्ट्र और झारखंड एक-दूसरे से एकदम अलग-अलग मालूम पड़ते हैं. मगर दोनों जगह नई सरकार की चुनौतियों में गजब की समानताएं भी हैं. एक तरफ देश के सबसे अमीर राज्यों में से एक महाराष्ट्र को तेज रफ्तार तरक्की के बाद आर्थिक मोर्चे पर ठहराव की चुनौती से मुकाबला करना है, तो वहीं दूसरी तरफ, देश में सबसे तेजी से तरक्की की संभावना और सबसे बड़े खनिज भंडार वाले झारखंड को अपनी प्राकृतिक धरोहर और अपने लोगों की तरक्की को सही दिशा देनेे की व्यवस्था करनी होगी.
औद्योगीकरण के मोर्चे पर महाराष्ट्र लंबे समय से देश में अव्वल नंबर पर रहा है. व्यापार और उद्योग के दम पर ही वह भारत का सबसे अमीर राज्य है. चालू वित्त वर्ष में भी राज्य की जीडीपी 42.67 लाख करोड़ रुपये होने का अनुमान है. मगर सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बीते वित्त वर्ष में महाराष्ट्र की जीडीपी के बढ़ने की रफ्तार 5.88 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत से कम है. जबकि, झारखंड इसी अवधि में 9.5 प्रतिशत की रफ्तार दिखा रहा है. हालांकि, यह भी ध्यान रखना चाहिए कि झारखंड की अर्थव्यवस्था का आकार महाराष्ट्र के दसवें हिस्से के आसपास है.
महाराष्ट्र की नई सरकार के सामने आर्थिक मोर्चे पर जो अब सबसे बड़ी चुनौती होगी, वह यह कि देश की अर्थव्यवस्था में अपनी हिस्सेदारी कैसे बढ़ाई जाए? आज भी राज्यों की सूची में यह सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन साल 2010-11 में भारत की अर्थव्यवस्था में महाराष्ट्र का योगदान जहां 15.2 प्रतिशत था, वह 2023-24 तक घटकर 13.3 प्रतिशत रह गया है. जाहिर है, भारत के सबसे अमीर राज्य और आर्थिक राजधानी को अपना रुतबा इसे कायम रखना है, तो उसे इस बाधा को पार करना ही होगा और इसके लिए जरूरी है कि वह दोबारा बड़े उद्योगों को राज्य की तरफ खींचने का काम तेज करे. इसके लिए राज्य सरकार को अपने गिरेबान में भी झांकना होगा. देखना होगा कि उसके कौन से नियम ऐसे हैं, जो दूसरे राज्यों को उससे ज्यादा आकर्षक बनाते हैं. ऐसे नियमों को उसे सुधारना होगा.
उधर, झारखंड की चुनौती कुछ विकट है. खनिज संपदा के मामले में यह देश ही नहीं, दुनिया के समृद्ध इलाकों में से एक है. टाटा स्टील, बोकारो स्टील प्लांट, हिंडाल्को, टाटा मोटर्स और ऊषा मार्टिन जैसे अनेक बड़े उद्योग यहां मौजूद हैं. नवंबर 2000 में बिहार से अलग करके जब इसका गठन किया गया था, तब कहा गया था कि देश के सबसे गरीब राज्य से निकलकर जो राज्य बन रहा है, वह देश के सबसे अमीर राज्यों में से एक होगा. मगर यहां विकास के रास्ते की सबसे बड़ी समस्या बिजली की कमी है. कोकिंग कोल का सबसे बड़ा भंडार होने के बावजूद यहां के दो बड़े बिजली घर बंद पड़े हैं, क्योंकि उन्हें कोयला आपूर्ति करने का इंतजाम नहीं हो पा रहा है. नतीजा बिजली का संकट. अभी गोड्डा बिजली घर से अदाणी समूह बांग्लादेश को जो बिजली आपूर्ति करता है, उसके भी बंद होने की आशंका लग रही है, क्योंकि बांग्लादेश से भुगतान में समस्या हो रही है. अगर ऐसा हुआ, तो यह खबर शायद झारखंड के लिए खुशखबरी में बदल जाए. हालांकि, यह बिजली महंगी पड़ेगी, क्योंकि यह आयातित कोयले से बनती है. इसलिए बिजली की कमी का निपटारा नई सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी.
दूसरी चुनौती है, राज्य में नए उद्योग-धंधों के लिए अनुकूल माहौल. जहां पिछली सदी में देश के सबसे बड़े उद्योगों के लिए यहां की जमीन माफिक पाई गई थी, वहीं इनके सहायक उद्योगों के अलावा छोटे और मंझोले कारोबार यहां क्यों नहीं पनप पाए, इस पर नई सरकार को गंभीरता से सोचना होगा. भ्रष्टाचार, अपराधी गिरोहों व नक्सली हिंसा का डर भी इसके लिए जिम्मेदार है.
उद्योगों के अलावा एक और क्षेत्र है, जिसमें सरकार काफी कुछ कर सकती है और लोगों को रास्ता दिखाकर काम पर लगा सकती है, वह है पर्यटन. यहां के खनिज, उनसे जुड़ी आदिवासी परंपराएं, खनिज निकालने, प्रॉसेस करने और उनसे धातुएं या दूसरे उत्पाद बनाने तक की पूरी प्रक्रिया को बाकायदा पर्यटकों के लिए दिलचस्प बनाया जा सकता है. देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों में इसके उदाहरण मौजूद हैं. इसी तरह, जंगल और आदिवासी पर्यटन भी जबर्दस्त संभावना रखते हैं. नई सरकार यदि सलीके से इस पर ध्यान दे, तो राज्य का कायापलट हो सकता है.
नई सरकार के सामने एक बड़ा मौका भी आ रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने खनिज संपदा पर रॉयल्टी के मामले में राज्यों के हक में जो फैसला सुनाया, उसके बाद अब रॉयल्टी की कमाई बढ़ने वाली है और राज्य सरकार को सोचना है कि खजाने में आने वाली इस रकम को कहां और कैसे खर्च किया जाए?
बहुत लंबे समय से हर चुनाव के आस-पास कुछ नारे सुनाई देते थे- हर पेट को रोटी, हर हाथ को काम. या, जो रोजी-रोटी दे न सके, वह सरकार निकम्मी है या जो सरकार निकम्मी है, वह सरकार बदलनी है. इस चुनाव में नारे कुछ और थे. रोटी का सवाल अब कम उठाया जाता है. मुफ्त अनाज बांटने की योजना पर अलग से चर्चा हो सकती है, मगर रोजगार का सवाल अभी बना हुआ है. मुफ्त अनाज और खाते में पैसे मिलने से लोग वोट तो डाल रहे हैं, मगर अब भी सरकारी नौकरी की हनक कम नहीं हुई है. शायद इसीलिए गारंटियों की लिस्ट में सरकारी नौकरियां बरकरार हैं.
जाहिर है, महाराष्ट्र और झारखंड हों या दूसरे राज्यों की सरकारें. अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती नौजवान आबादी को काम देना ही है. और, इसके लिए दोनों नई सरकारों को दो मोर्चों पर काम करना होगा. एक, नौजवानों की पढ़ाई और उनकी ट्रेनिंग इस अंदाज में कराई जाए कि वे सर्विस सेक्टर में काम करने या अपना कारोबार शुरू करने के लिए तैयार हो सकें. और दूसरा, ऐसे नए क्षेत्रों और कारोबारों की पहचान करना, जो भविष्य में तेजी से बढ़ने वाले हैं और कंप्यूटरीकरण या कृत्रिम बुद्धिमत्ता के इस दौर में भी ज्यादा से ज्यादा लोगों की जिंदगी का सहारा बन सकें.
(ये लेखक के अपने विचार हैं)